दैनिकचर्या के शास्त्रोक्त विधान – सर्वभूत शरणम्

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Post Views: 1 सनातन हिंदू धर्म और संस्कृति अद्वितीय, विलक्षण एवं अपरिमेय है। इसमें बताए गए सभी विधान, नियम, सिद्धांत, आचरण और व्यवहार न केवल मानव जाति को मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने में पूर्णतः सक्षम हैं प्रत्युत उसके लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के मार्ग को भी सशक्त रूप से प्रशस्त करते हैं।

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सनातन हिंदू धर्म और संस्कृति अद्वितीय, विलक्षण एवं अपरिमेय है। इसमें बताए गए सभी विधान, नियम, सिद्धांत, आचरण और व्यवहार न केवल मानव जाति को मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने में पूर्णतः सक्षम हैं प्रत्युत उसके लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के मार्ग को भी सशक्त रूप से प्रशस्त करते हैं। इसका मूल कारण यह है कि इन विधानों, नियमों एवं सिद्धांतों को प्रतिपादित करने वाले हमारे मनीषियों ने प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को समझते हुए उसके वैज्ञानिक पहलुओं को आधार बनाया है। मानवमात्र का कल्याण एवं उत्थान सरलता व शीघ्रता से किस प्रकार हो – इसका जितना सटीक और गंभीर विशद विवेचन हमारी संस्कृति में किया गया है उतना अन्यत्र दुर्लभ एवं अप्राप्य है। शरीर धारण (जन्म) करने से लेकर शरीर छोड़ने (मृत्यु) तक मानव अपनी दिनचर्या के रूप में जिन क्रियाओं को करता है, उन सबको हमारे मनीषियों ने अत्यंत सटीक वैज्ञानिक पद्धति से क्रमबद्ध, सुसज्जित एवं व्यवस्थित किया है। इन मनीषियों ने विभिन्न शास्त्रों के माध्यम से वैज्ञानिक आधार पर यह बताया है कि हमें दैनिक कार्यों को कैसे करना चाहिए।

इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 16वें अध्याय के 23वें श्लोक में कहा है-

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।

यानी जो मनुष्य शास्त्रीय विधि को त्याग कर अपनी इच्छा अनुसार मनमाना (स्वेच्छाचारिता पूर्ण) आचरण करता है वह न सिद्धि (अंतःकरण की शुद्धि) को, न सुख को और न परम गति को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह कि हम क्या करें, कैसे करें, कब करें और क्या न करें – इन सबके संबंध में शास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिए। गीता के 16वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे मनमाना आचरण करने वाले व्यक्ति को असुर के समान बताया है –

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना नविदुरासुरा:।

शास्त्रानुसार क्या करें और क्या न करें – इसे नई पीढ़ी के लोग न जानते हैं और न जानना चाहते हैं लेकिन पुरानी पीढ़ी का यह कर्तव्य और उत्तरदायित्व है कि वह ऐसी ही कुछ बातों से उनको अवगत कराएं जो शास्त्रसम्मत हैं और जिनका पालन कर हम दीर्घायु को प्राप्त कर सकते हैं। इस संबंध में हम सबसे पहले शयन (नींद) के सही तरीके को जानते हैं-

शयन के तरीके पर क्या कहते हैं शास्त्र

१. विष्णु पुराण में कहा गया है कि सदा पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर करके सोना चाहिए। उत्तर या पश्चिम दिशा की तरफ सिर करके सोने से आयु क्षीण होती है तथा शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं – “प्राच्यां दिशि शिरश्शस्तं याम्यायामथ वा नृप। सदैव स्वपत: पुंसो विपरीतं तुम रोगदम्।।

इसी तरह पद्म पुराण में भी कहा गया है – “उत्तरे पश्चिमे चैव न स्वपेद्धि कदाचन।। स्वप्नादायु: क्षयं याति ब्रह्महा पुरुषो भवेत्। न कुर्वीत तत: स्वप्नं शस्तं च पूर्वदक्षिणम्।”

२. लघुव्यास संहिता में कहा गया है – “आवाङ्मुखो न नग्नो वा न च भिन्नासने क्वचित्। न भग्नायान्तु खट्वायां शून्यागारे तथैव च।।”

अर्थात अधोमुख होकर, नग्न होकर, दूसरे की शय्या पर, टूटी हुई खाट पर तथा जनशून्य यानी सूने घर में नहीं सोना चाहिए।

३. भगवंतभास्कर, आचारमयूख मैं कहा गया है कि – “प्राक् शिर:शयने विद्याद्धनमायुश्च दक्षिणे। पश्चिमे प्रबला चिन्ता हानिमृत्युरथोत्तरे।।”

अर्थात् पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या की प्राप्ति होती है जबकि दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन और आयु की वृद्धि होती है। पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से प्रबल चिंता होती है और उत्तर की तरफ सिर करके सोने से हानि तथा मृत्यु होती है अर्थात् आयु क्षीण होती है।

४. विष्णु पुराण में कहा गया है कि – “नाविशालां न वै भग्नां नासमां मलिनां न च। न च जन्तुमयीं शय्यामधितिष्ठेदनास्तृताम्।।”

अर्थात् जो विशाल (बड़ी) न हो, ऊंची-नीची न हो, मैली हो अथवा जिसमें जीव जैसे खटमल, दीमक आदि छोटे-छोटे जंतु हों या जिस पर कुछ बिछा हुआ ना हो, उस शैय्या पर नहीं सोना चाहिए।

५. कूर्मपुराण में कहा गया है कि – “नानुवंशं न पालाशे शयनं वा कदाचन” – अर्थात् बांस या पलाश की लकड़ी से बने फर्नीचर पर कभी भी नहीं सोना चाहिए। इसी तरह महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है कि – “चोच्छिष्टोऽपि संविशेत्” यानी जूठे मुंह भी नहीं सोना चाहिए। इसी में आगे कहा गया है – “स्वप्तव्यं नैव नग्नेन” अर्थात् नग्न होकर भी नहीं सोना चाहिए। इस बात (नग्न होकर सोने) की मनाही अन्य ग्रंथों यथा मनुस्मृति, विष्णुस्मृति, विष्णु पुराण, गौतम धर्मसूत्र, नारद पुराण, वामन पुराण आदि ग्रंथों में भी की गई है।

वहीं सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि – “नार्वाक्शिरा: शयीते” अर्थात् सिर को नीचे करके नहीं सोना चाहिए। तात्पर्य यह कि सोते समय सिर के नीचे तकिया या कुछ अवलंबन होना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है। विशेषकर शरीर में यथोचित तरीके से रक्त संचरण के लिए।

६. मनुस्मृति, कूर्म पुराण, पद्मपुराण, स्कंद पुराण एवं विष्णु स्मृति जैसे अन्य ग्रंथों में कहा गया है कि सूने घर, देव मंदिर या देवालय और श्मशान में नहीं सोना चाहिए।

७. पद्म पुराण में कहा गया है कि – “नान्धकारे च शयनं भोजनं नैव कारयेत्” यानी अंधेरे में न सोना चाहिए और ना ही भोजन करना चाहिए।

८. मनुस्मृति, अत्रीय स्मृति, महाभारत, विष्णु स्मृति, पद्मपुराण और स्कंद पुराण सहित कई महत्वपूर्ण ग्रंथों में इस बात की जोरदार ढंग से चर्चा की गई है कि सोते समय पैर गिला या भींगा हुआ नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे लक्ष्मी भाग जाती हैं जबकि सूखे पैर सोने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

९. धर्मसिंधु में कहा गया है कि – “निद्राकाले ताम्बूलं मुखात् स्त्रियं शयनाद् भालात्तिलकं शिरस: पुष्पं च त्यजेत्” जबकि भगवंतभास्कर, आचारमयूख में कहा गया है कि – “निद्रासमयमासाद्य ताम्बूलं वदनात्त्यजेत्। पर्यंकात्प्रमदां भालात्पुण्ड्रं पुष्पाणि मस्तकात्।।” यानी निद्रा के समय मुख से तांबूल या पान, शैय्या से स्त्री, ललाट से तिलक और सिर से पुष्प का त्याग कर देना चाहिए।

इसी तरह से विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है कि रात्रि में पगड़ी या टोपी पहनकर नहीं सोना चाहिए।

१०. सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि ग्रीष्म ऋतु को छोड़कर सभी ऋतुओं में दिन में सोना निषिद्ध है। इसके सिवाय बालक, वृद्ध, रोगी आदि किसी भी ऋतु में दिन में 48 मिनट यानी एक मुहूर्त तक सो सकते हैं। जिन्होंने रात्रि जागरण किया है वे लोग भी रात्रि जागरण के आधे समय तक दिन में सो सकते हैं। इसके साथ ही महाभारत के अनुशासन पर्व, नारद पुराण, शुक्र नीति आदि ग्रंथों में कहा गया है कि रात्रि के पहले और अंतिम पहर को छोड़कर दूसरे और तीसरे पहर में सोना उत्तम है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि दिन में और दोनों संध्याओं के समय जो नींद लेता है वह रोगी और दरिद्र होता है। दिन में और सूर्योदय के बाद सोना आयु को क्षीण करने वाला बताया गया है।

११. अष्टांग हृदय, देवी भागवत, व्यास स्मृति, लघु व्यास संहिता, मनुस्मृति और विष्णु पुराण में कहा गया है कि स्वस्थ मनुष्य को आयु की रक्षा के लिए ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए।

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